क्या आप खुद को पसंद नहीं करतीं?:व्यक्तिगत पसंद-नापसंद सबके लिए मायने रखती है, उसमें परिवर्तन भी व्यक्तिगत विकल्प होना चाहिए, लेकिन महिलाओं के मामले में ऐसा क्यों नहीं हो पाता?
भला ऐसा ख़याल भी क्या करना?
रेवा जैसी कितनी ही महिलाएं हैं जो पति की पसंद-नापसंद को अपने जीवन में लागू कर जीती हैं। उनके अनुसार सजती-संवरती हैं। ‘अलाउड और नॉट अलाउड’ की परवाह करती हैं और अपनी पसंद-नापसंद को ताले में बंद कर हमेशा के लिए कैद कर देती हैं। स्त्री को कपड़े कैसे पहनने हैं, बाल छोटे रखने हैं या बड़े, ये अधिकतर उनके पति तय करते हैं। मेरे पड़ोस की एक महिला के बाल बहुत घने-लंबे थे। वह अपनी गर्भावस्था के दौरान बाल कटवाना चाहती थी।
मगर उसके पति ने कटवाने नहीं दिए। बोले, ‘तुम्हारे इन बालों को देखकर ही मैंने तुम्हें पसंद किया था। अब क्या मेरी पसंद के लिए इतना भी न करोगी?’ डिलीवरी के समय उसे कई दिन बेड रेस्ट करना पड़ा। गर्मी में बालों को संभालना मुश्किल हो गया। लटें बंध गईं। बाल धोने, सुलझाने में बहुत परेशानी हुई। मगर बाल कटवाने की इजाज़त नहीं मिली। पति ने न तो पत्नी की इच्छा का ख़याल रखा और न सुविधा का।
पति की पसंद को यूं ख़ुद पर थोपकर जीना उस सोच को ही पोषित करना है, जिसका महिलाएं ख़ुद दबी ज़बान में विरोध करती रही हैं। लेकिन एक ओर विरोध है और दूसरी ओर पति की पसंद-नापसंद का मान रख, ख़ुद को पति की नज़रों में ऊंचा उठाने की कोशिश भी महिलाएं करती हैं। ऐसा कर असल में वे ख़ुद एक ऐसे रिश्ते को बुन लेती हैं, जिसमें शर्तें लागू हों।
सब पहले ही तय कर दिया है
फिल्म ‘सांड की आंख’ में शूटर दादियों से पूछा जाता है कि उनकी उम्र क्या है। तब वो अनभिज्ञता ज़ाहिर करती हैं। इस पर सवाल पूछ रहा व्यक्ति मुस्कराते हुए कहता है, ‘महिलाएं अपनी असली उम्र नहीं बताना चाहती हैं।’ तब शूटर दादी कहती है, ‘ऐसा नहीं है। उम्र बताने में क्या है। मगर एक औरत उस उम्र का सही हिसाब नहीं लगा पाती जो वह अपने लिए जीती है।’ हम सबने भी ज़रूर देखा और महसूस किया होगा कि घर-परिवार के लिए स्त्री स्वयं की पसंद को बहुत पीछे छोड़ देती है।
स्त्री के इस व्यवहार को हमारे समाज में उसकी ‘जिम्मेदारी’ की तरह स्वीकार कर लिया गया है। और अब उसकी इच्छा-अनिच्छा से परे उससे वो सबकुछ करते रहने की अपेक्षा की जाती है, जो वो तब भी करती थी, जब उसके ज़िम्मे बाहर के काम नहीं थे।
रिश्तों को टॉक्सिक न बनाएं
पति-पत्नी के बीच प्रेम के साथ भरोसा, समझदारी और सहयोग की भावना होनी चाहिए। यही उनके रिश्ते की नींव है। उस पर अपनी पसंद-नापसंद को महत्व देना, एक टॉक्सिक रिश्ते की शुरुआत है। एक तरह से इमोशनल ब्लैक मेलिंग है, ‘तुम साड़ी, गहनों में अच्छी लगती हो। मेकअप लगाकर रहा करो।’ ‘किचन में काम करती अच्छी लगती हो।’ ‘मम्मी को तुम्हारे जिम्मे कर रहा हूं।’ ‘भई बच्चे मुझसे नहीं संभलते, ये तो तुम्हारा डिपार्टमेंट है।’ ‘मेहमानों को तो तुम ही संभाल सकती हो।’ ऐसी बातें करके पुरुष तारीफ़ में कसीदे नहीं पढ़ रहा होता है, इन्हीं ‘अपनी कमज़ोरियों और स्त्री की ख़ूबियों’ का स्वांग कर वो पितृसत्ता की सोच को स्त्री के माध्यम से आगे ले जाने का काम कर रहा है।
सामंजस्य वाला हो रिश्ता
रिश्ते में सामंजस्य बैठाकर चलना हम सभी के लिए ज़रूरी है। मगर पसंद की आड़ में अधिकार जताने की कोशिश का विरोध किया जाना चाहिए। विवाह किसी पर हुकूमत का लाइसेंस नहीं देता। न स्त्री अपनी इच्छाओं को किसी पुरुष पर थोप सकती है, न पुरुष अपनी इच्छाओं को स्त्री पर। बल्कि एक-दूसरे की पसंद-नापसंद को स्वीकार कर उसे अपने हिसाब से जीने देना ही विवाह का असली मतलब होता है। दूसरे को अपने हिसाब से ढालने की कोशिश यह भी इंगित करती है कि उसे ठीक से रहना ही नहीं आता।
कोशिश अगर संवार कर कुछ नया आज़माने की है, तो उसका अंदाज़ भी वैसा ही होना चाहिए।
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